एक बौद्ध भिक्षु हुआ बहुत अनूठा, नागार्जुन। नागार्जुन के पास एक युवक आया। और उस युवक ने कहा कि मैं भी चाहता हूं कि जान लूं उसको, जो कभी लिप्त नहीं होता। जान लूं उसको, जो अकर्ता है। जान लूं उसको, जो परम आनंदित है, सच्चिदानंदघन है। कोई रास्ता?
नागार्जुन बहुत अपने किस्म का अनूठा गुरु था। उसने कहा कि पहले मैं तुझसे पूछता हूं कि तुझे किसी चीज से लगाव, कोई प्रेम तो नहीं है? उस युवक ने कहा कि कोई ज्यादा तो नहीं है, सिर्फ एक भैंस है मेरे पास, पर उससे मुझे लगाव है। तो नागार्जुन ने कहा कि बस इतना काफी है। इससे काम हो जाएगा। साधना शुरू हो जाएगी।
उस युवक ने कहा कि भैंस से और साधना का क्या संबंध? और मैं तो डर भी रहा था कि यह अपना लगाव बताऊं भी कि नहीं! कोई स्त्री से हो, किसी मित्र से हो, तो भी कुछ समझ में आता है। यह भैंस वाला लगाव! मैंने सोचा था कि इसकी तो चर्चा ही नहीं उठेगी। लेकिन आपने पूछा।
नागार्जुन ने कहा, बस, तू एक काम कर। यह सामने मेरी गुफा के जो दूसरी गुफा है, उसमें तू चला जा; और एक ही भाव कर कि मैं भैंस हूं। जो तेरा प्रेम है, उसको तू आरोपित कर। बस, तू अपने को भैंस का रूप बना ले। और तू लौटकर मत आना। जब जरूरत होगी, तो मैं आऊंगा। तू तो बस, इतना ही भाव कर, एक ही भाव कि मैं भैंस हूं।
उस युवक ने साधना करनी शुरू की। एक दिन बीता, दो दिन बीता, तीसरे दिन उसकी गुफा से भैंस की आवाज आनी शुरू हो गई। नागार्जुन ने अपने शिष्यों से कहा कि अब चलने का वक्त आ गया। अब चलो, देखो, क्या हालत है।
वे सब वहां अंदर गए। वह युवक दरवाजे के पास ही सिर झुकाए खड़ा था। दरवाजा काफी बड़ा था। बाहर निकल सकता था। लेकिन सिर झुकाए खड़ा था जैसे कोई अड़चन हो। भैंस की आवाज कर रहा था। नागार्जुन ने कहा कि बाहर आ जाओ। उसने कहा कि बाहर कैसे आ जाऊं! मेरे सींग दरवाजे में अड़ रहे हैं। आंखें उसकी बंद हैं।
नागार्जुन के बाकी शिष्य तो बहुत हैरान हुए। उन्होंने कहा कि सींग दिखाई तो पड़ते नहीं! नागार्जुन ने कहा कि जो नहीं दिखाई पड़ता, वह भी अड़ सकता है। जो नहीं है, वह भी अड़ सकता है। अड़ने के लिए होना जरूरी नहीं है, सिर्फ भाव होना जरूरी है। इसका भाव पूरा है।
नागार्जुन ने उसे हिलाया और कहा, आंख खोल। उसने घबड़ाकर आंख खोली, जैसे किसी गहरी नींद से उठा हो। तीन दिन की लंबी नींद, आत्म-सम्मोहन, सेल्फ हिप्नोसिस, तीन दिन तक निरंतर कि मैं भैंस हूं। जैसे बड़ी गहरी नींद से जगा हो। एकदम तो पहचान भी न सका कि क्या मामला है।
नागार्जुन ने कहा कि घबड़ा मत। कहां हैं तेरे सींग? उसने सिर पर हाथ फेरा। उसने कहा कि नहीं, सींग तो नहीं हैं। लेकिन अभी अड़ रहे थे। उसने कहा, वह भी मुझे खयाल है। मैं तीन दिन से निकलने की कोशिश कर रहा हूं। और तुमने कहा था, निकलना मत। मैं तीन दिन से कोशिश करके भी निकल नहीं पा रहा हूं। वे सींग अड़ जाते हैं बीच में। बड़ी तकलीफ भी होती है। टकराता हूं; तकलीफ होती है।
तो नागार्जुन ने कहा, कहां हैं सींग? कहां है तेरा भैंस होना? नागार्जुन ने कहा कि तुझे अब मैं कुछ और सिखाऊं कि बात तू सीख गया? उसने कहा, मैं बात सीख गया। तीन दिन का मुझे मौका और दे दें।
नागार्जुन और उसके शिष्य वापस लौट आए। शिष्यों ने कहा, हम कुछ समझे नहीं। यह क्या वार्तालाप हुआ? नागार्जुन ने कहा, तीन दिन बाद!
तीन दिन तक वह युवक फिर उस कोठरी में बंद था। और जैसे तीन दिन उसने अपने को भैंस होना स्वीकार कर के भैंस बना लिया था, वैसे तीन दिन उसने अस्वीकार किया कि मैं शरीर नहीं हूं, मैं मन नहीं हूं। और तीन दिन बाद जब नागार्जुन और उसके शिष्य वहां पहुंचे, तो वह जो व्यक्ति उन्होंने देखा था, वहां सिर्फ रस्सी की राख रह गई थी, जली हुई।
उस व्यक्ति ने आंख खोली और नागार्जुन ने अपने शिष्यों से कहा, इसकी आंखों में झांको। उन आंखों में जैसे गहरा शून्य था। और नागार्जुन ने पूछा कि अब तुम कौन हो? तो उस व्यक्ति ने कहा कि सिर्फ आकाश। अब मैं नहीं हूं। सब समाप्त हो गया। और जो मैं चाहता था जानना, वह मैंने जान लिया! और जो मैं चाहता था होना, वह मैं हो गया हूं।
जो भी आप सोच रहे हैं कि आप हैं, यह आपकी मान्यता है। यह आटो-हिप्नोसिस है। यह आत्म-सम्मोहन है। और यह सम्मोहन इतना गहरा है, बचपन से डाला जाता है, कि इससे आपको खयाल भी नहीं है कभी कि यह अपनी ही मान्यता है, जो हम अपने चारों तरफ खड़ी कर लिए हैं। आपका व्यक्तित्व आपकी मान्यता है।
आदमी बहुत अदभुत है। आदमी सेल्फ हिप्नोसिस करने वाला प्राणी है। वह अपने को जो भी मान लेता है, वैसा कर लेता है। आपकी सारी व्यक्तित्व की परतें आपकी मान्यताओं की परतें हैं। आप जो हैं, वह आपका सम्मोहन है।
अध्यात्म का अर्थ है, इस सारे सम्मोहन को तोड़कर उसके प्रति जग जाना, जिसका कोई भी सम्मोहन नहीं है। यह सारा शरीर, यह मन, ये धारणाएं, यह स्त्री यह पुरुष, यह अच्छा यह बुरा, इस सबसे हटते जाना। और सिर्फ चैतन्य मात्र, शुद्ध चित्त मात्र शेष रह जाए, मैं सिर्फ जानने वाला हूं, इतनी प्रतीति भर बाकी बचे। तो उस प्रतीति के क्षण में पता चलता है कि वह जो भीतर बैठा हुआ आकाश है, वह सदा कुंवारा है। न उसने कभी कुछ किया और न कुछ उस पर अभी तक लिप्त हुआ है। वह अस्पर्शित, शुद्ध है।
osho
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