जब यह संसार माया हो जाता है तो तुम्हारा गुरु भी उसका एक हिस्सा होगा और वह भी विलीन होगा। इसलिए जब शिष्य जागता है तो गुरु नहीं रहता है। यह बात परस्पर विरोधी मालूम पड़ेगी। जब शिष्य सच में ही बोध को उपलब्ध होता है तो गुरु नहीं रहता।
बौद्ध संत सरहा के अनेक सुंदर गीत हैं, वह प्रत्येक गीत के अंत में कहता है: और सरहा विलीन हो गया। वह कुछ उपदेश करता है, कुछ समझता है। वह कहता है : न संसार है और न निर्वाण है, न शुभ है और न अशुभ है। पार जाओ, और सरहा विलीन होता है। अब तक यह पहेली रही है कि सरहा क्यों बार-बार कहता है कि सरहा विलीन होता है। अगर तुम सच ही सरहा के इस गीत को, उसके इस उपदेश को उपलब्ध हो जाओ कि न शुभ है न अशुभ, न संसार है न निर्वाण, अगर शिष्य सचमुच इस सत्य के प्रति जाग जाए तो सरहा विलीन हो जाएगा। गुरु कहां रहेगा? गुरु तो शिष्य के संसार का हिस्सा था। अब न कोई गुरु होगा और न कोई शिष्य। वे एक हो जाएंगे। जब शिष्य जागता है तो वह गुरु हो जाता है और सरहा विलीन हो जाता है।
तब गुरु कहां? गुरु भी तुम्हारे स्वप्न का, माया-जगत का हिस्सा है। लेकिन इसके कारण अनेक समस्याएं उठ खड़ी होती हैं। कृष्णमूर्ति कहे जाते हैं कि कोई गुरु नहीं है। और वे सही हैं। यह परम सत्य है। जब तुम बुद्ध हो गए तो तुम ही गुरु हो, कोई दूसरा गुरु नहीं है। लेकिन यह तो परम सत्य है और इस सत्य के घटित होने के पूर्व गुरु है क्योंकि शिष्य है। शिष्य ही गुरु को निर्मित करता है ; वह शिष्य की जरूरत है।
सारिपुत्त बुद्ध के सर्वश्रेष्ठ शिष्यों में था। वह स्वयं ज्ञान को उपलब्ध हुआ, वह स्वयं बुद्ध हो गया। तब बुद्ध ने सारिपुत्त से कहा : अब तुम परिभ्रमण पर निकल सकते हो, अब तुम्हें मेरी सन्निधि की जरूरत न रही। तुम खुद ही गुरु हो गए हो, इसलिए जाओ और दूसरों को नींद से बाहर आने में सहायता पहुंचाओ। सारिपुत्त ने बुद्ध से विदा लेते हुए उनके चरण छुए। किसी ने उससे पूछा कि तुम तो खुद बुद्धत्व को उपलब्ध हो गए, फिर बुद्ध के चरण क्यों छूते हो? सारिपुत्त ने कहा कि बुद्ध के चरण छूने की जरूरत तो अब नहीं है, लेकिन यह उपलब्धि उनके कारण ही घटित हुई। अब जरूरत तो नहीं रही, लेकिन यह स्थिति उनके कारण ही संभव हो सकी। तो जब गुरु विलीन भी हो जाता है तब भी शिष्य उसके प्रति कृतज्ञता अनुभव करता है आत्यंतिक कृतज्ञता जो संभव है।
जब तुम सोए हुए हो तो कोई चाहिए जो तुम्हें हिलाए, तुम्हें जगाए। और अगर तुम ऐसा करने देते हो तो वही समर्पण है। अगर तुम कहते हो कि ठीक है, मैं तैयार हूं कि तुम मेरी नींद अस्तव्यस्त करो तो यही समर्पण है, श्रद्धा है।
श्रद्धा का अर्थ है कि अब यदि यह व्यक्ति गड्डे में भी ले जाएगा तो मैं जाने के लिए तैयार हूं। अब तुम उस पर कोई आपत्ति नहीं उठाओगे। वह तुम्हें जहां भी ले जाए, तुम उस पर भरोसा करोगे कि वह तुम्हारा कुछ नुकसान नहीं करेगा। और अगर तुम्हें भरोसा नहीं है तो कोई यात्रा संभव नहीं है, क्योंकि तुम्हें डर है कि यह व्यक्ति नुकसान पहुंचा सकता है। तुम अपने ढंग से सोचते हो कि यह व्यक्ति कई तरह से मुझे नुकसान पहुंचा सकता है। और अगर तुम सोचते हो कि मुझे अपनी सुरक्षा करनी चाहिए तो कोई विकास संभव नहीं है।
अगर तुम्हें अपने सर्जन पर भरोसा नहीं है तो तुम उसे अपने को बेहोश नहीं करने दोगे। तुम नहीं जानते कि वह क्या करने वाला है ! और तुम कहोगे कि आप आपरेशन तो करें, लेकिन मुझे होश में रहने दें, ताकि मैं देखता रहूं कि आप क्या कर रहे हैं। मैं आप पर भरोसा नहीं कर सकता। लेकिन तुम अपने सर्जन पर भरोसा करते हो। वह तुम्हें बेहोश कर देता है, क्योंकि बात ही ऐसी है कि होश में सर्जरी असंभव है, तुम्हारा होश उसमें बाधा डालेगा। इसीलिए कहते हैं, श्रद्धा अंधी है। उसका अर्थ है कि तुम बेहोश होने को भी, अंधे होने को भी राजी हो। गुरु तुम्हें जहां ले जाना चाहे, तुम वहां जाने को तैयार हो। तो ही गहरी, आंतरिक सर्जरी संभव होती है। और यह न केवल शारीरिक सर्जरी है, यह सर्जरी मानसिक है, मनोवैज्ञानिक है। बहुत पीड़ा होगी, बहुत संताप होगा, क्योंकि बहुत रेचन की जरूरत है। तुम्हें तुम्हारे उस केंद्र पर फिर से वापस लाना है, जिसे तुम बिलकुल भूल गए हो। तुम्हें तुम्हारी उन जड़ों से फिर से जोड़ना है जिनसे तुम मीलों दूर निकल आए हो। यह काम श्रमसाध्य है, यह काम कठिन है। इसमें वर्षों भी लग सकते हैं। लेकिन यदि शिष्य समर्पण करने को तैयार है तो यह क्षणों में भी घटित हो सकता है। यह समर्पण की गहराई पर निर्भर है। बहुत समय व्यर्थ चला जाता है जो कि आवश्यक नहीं है।
गुरु को धीरे-धीरे चलना पड़ता है, ताकि तुम्हें ज्यादा भरोसे के लिए तैयार किया जा सके। और उसे सिर्फ श्रद्धा निर्मित करने के लिए अनेक अनावश्यक काम करने पड़ते हैं। सर्जरी करने के लिए गुरु को अनेक गैर-जरूरी काम करने पड़ते हैं जिन्हें छोड़ा जा सकता है। उन पर समय और श्रम बेकार करने की कोई जरूरत नहीं है, लेकिन सिर्फ श्रद्धा पैदा करने के लिए वे जरूरी हो जाते हैं। मैंने सरहा की बात की। सरहा बौद्ध परंपरा के चौरासी सिद्धों में से एक है। सरहा उन शिष्यों से बोल रहा है जो गुरु हो गए हैं। वह कहता है: इस ढंग से आचरण करो कि दूसरे तुम पर श्रद्धा कर सकें। मैं जानता हूं कि अब तुम्हें नीति-नियम की जरूरत नहीं रही, तुम उनके पार जा चुके हो। तुम अब जो चाहो कर सकते हो। तुम अब जो चाहो हो सकते हो। अब तुम्हारे लिए न किसी व्यवस्था की जरूरत है और न किसी नैतिकता की। लेकिन तो भी इस ढंग से व्यवहार करो कि लोग तुम पर भरोसा कर सकें। इसीलिए महान गुरुओं ने समाज-स्वीकृत आचरण अपनाए हैं। इसलिए नहीं कि उन्हें उसकी जरूरत थी ; वह केवल एक अनावश्यक काम है जो श्रद्धा पैदा करने के लिए किया जाता है।
गुरु को नाहक ही अपने चारों ओर बहुत सी चीजें खड़ी करनी पड़ती हैं, बहुत से व्यर्थ के काम करने पड़ते हैं, सिर्फ इसलिए कि शिष्यों में भरोसा पैदा हो। उसके बावजूद समस्याएं खड़ी होती हैं, क्योंकि हरेक शिष्य अपनी अपेक्षाएं लेकर आता है कि गुरु को ऐसा होना चाहिए, वैसा होना चाहिए। समर्पण का अर्थ है कि तुम अपनी अपेक्षाएं छोड़ देते हो और गुरु को वह होने देते हो जो वह होना चाहता है, गुरु को वह करने देते हो जो वह करना चाहता है। अगर उससे पीड़ा होती है तो तुम उसके लिए राजी हो। अगर वह तुम्हें मार डाले तो तुम उसके लिए भी तैयार हो। क्योंकि अंततः वह तुम्हें गहन मृत्यु में ही ले जाने वाला है। इसके बाद ही तुम्हारा पुनर्जन्म संभव है, तुम द्विज हो सकते हो। पुराने व्यक्तित्व के सूली पर चढ़ने के बाद ही पुनर्जन्म संभव है, नवजीवन संभव है।
osho
जब तक ‘मैं’ भाव है तब तक ‘मैं’ को गुरु की आवश्यकता होती है, जब ‘हूं’ भाव आ जाता है, तो ‘मैं’ भाव के साथ-साथ गुरु भी लीन हो जाता है।
Discover more from होश में रहो !!!
Subscribe to get the latest posts sent to your email.