~भौतिक शरीर से आरंभ करो और तब हर अगला कदम तुम्हारे लिए खुल जाता है। जब तुम पहले शरीर पर कार्य कर रहे होते हो तुम्हे दूसरे की झलकें मिलती हैं।
~इसलिए भौतिक शरीर से शुरू करो। उसके प्रति सजग होओ प्रत्येक क्षण सजग, क्षण-क्षण, और न केवल बाहर-बाहर से–क्योंकि हम अपने शरीर के प्रति बाहर से सजग हो सकते हैं, जैसा कि यह बाहर से दिखाई पड़ता है।
~मैं अपने हाथ को देखता हूं मैं इसके प्रति ऐसे सजग हो सकता हूं जैसे कि मैंने इसको बाहर से देखा हो। लेकिन जब मैं अपनी आंखें बंद भी कर लेता हूं तब भी मुझे अपने हाथ की एक अंतर अनुभूति है। अब हाथ दिख नहीं रहा है लेकिन एक अनुभूति है। उसके होने की आंतरिक अनुभूति है। तो अपने शरीर के प्रति उस प्रकार से सजग मत होओ जैसा कि वह बाहर से दिखता है। यह तुमको भीतर की ओर नहीं ले जाएगा। अगर तुम अपने शरीर के प्रति इस प्रकार से सजग होते हो जैसा कि वह बाहर से दिखाई पड़ता है तो तुम उसके साथ कभी विकसित नहीं हो सकते हो क्योंकि भीतर की अनुभूति नितांत भिन्न है।
~जब तुम इसे भीतर से अनुभव करते हो कि शरीर के भीतर होने का क्या मतलब है…मैं एक मकान को बाहर से देख सकता हूं यह एक बात है, भीतर से देखना कुछ और बात है। यह वही मकान है। लेकिन भीतर से यह कुछ और है। और भीतर से… बड़ा भेद यह है कि जब तुम इसे सिर्फ बाहर से देखते हो तो तुम इसके रहस्य नहीं जान सकते हो। तुम सिर्फ बाहरी दीवारों को जान सकते हो जैसा कि वे दूसरों को दिखाई पड़ती हैं।
अगर मैं अपने शरीर को बाहर से देखता हूं तो मैं इसको ऐसे ही देखता हू जैसा यह दूसरों को भी दिखाई पड़ता है। और भीतर से देखने का बिंदु केवल मेरे द्वारा ही जाना जा सकता है, और इसे कोई दूसरा नहीं जान सकता है। मेरा हाथ बाहर की ओर से—तुम इसे देख सकते हो और मैं इसे देख सकता हूं। यह कुछ ऐसी चीज है जो वस्तुगत हो गई है। तब उस दिशा से देखा गया हाथ मेरा ही नहीं रहा है। यह एक सार्वजनिक संपदा बन गया है। तुम भी इसे उतना ही जान सकते हो जितना कि मैं इसे जान सकता हूं।
जिस पल मैं इसे भीतर से देखता हूं केवल उस पल यह मेरा होता है और यह अनुभूति ऐसी होती है जिसे बांटा नहीं जा सकता है। तुम यह नहीं जान सकते हो कि मुझे भीतर से कैसा लग रहा है। सिर्फ मैं ही यह जान सकता हूं। इसलिए वह शरीर जिसे हम जानते हैं, वही शरीर नहीं है जो हमारा है। यह तो वह शरीर है जिसको सभी लोग बाहर से जानते हैं। यह वह शरीर है जिसको चिकित्सक प्रयोगशाला में जान सकते हैं। यह वह शरीर नहीं है जिसे जानने के लिए केवल मैं ही अधिकृत हूं।
~यह निजी अनुभूति ही तुम्हें भीतर ले जा सकती है; जानकारी का सार्वजनिक आयाम तुम्हें भीतर की ओर नहीं ले जा सकता है। यही कारण है कि जीवविज्ञान या मनोविज्ञान, जो बाहर से किए गए निरीक्षण हैं हमारे भीतरी शरीरों की जानकारी की ओर हमें नहीं ले जा सकते–क्योंकि यह शरीर पहला शरीर ही एक मात्र शरीर है जिसकी जानकारी को बांटा जा सकता है। दूसरा शरीर पूरी तरह से निजी है। और इस भौतिक शरीर की जैसा कि इसे भीतर से जाना गया है जानकारी भी बांटी नहीं जा सकती है। बाहर से प्राप्त ज्ञान को ही परिधि की जानकारी को ही बांटा जा सकता है।
तो इसी कारण से अनेक दुविधाएं खड़ी हो जाती हैं। किसी को अपने भीतर सौंदर्य का बोध हो सकता है जो कि एक अंतरिक अनुभूति है। वह अपने आप को सुंदर व्यक्ति की भांति सोच सकता है और हो सकता है कि उससे कोई भी सहमत न हो। तब बड़ी दुविधा हो जाती है। आमतौर से प्रत्येक व्यक्ति अपने आप को सुंदर समझता है कोई भी अपने आप को कुरूप नहीं मानता है। हम किसी व्यक्ति को यह मानने के लिए मजबूर कर सकते हैं कि वह कुरूप है और अगर हम सामूहिक रूप से इस पर सहमत हैं तो वह भी हमसे राजी हो सकता है। किंतु भीतर से कोई भी अपने आप को कुरूप अनुभव नहीं करता है? क्योंकि भीतर से शरीर सदा सुंदर है। भीतरी अनुभव सदा सौंदर्य का है।
बाहर का अनुभव कोई अनुभव नहीं है, बल्कि एक फैशन है बाहर से आरोपित एक कसौटी है। जो व्यक्ति एक समाज में सुंदर है दूसरे समाज में कुरूप हो सकता है। इतिहास के किसी एक काल में चेहरे का कोई विशेष आकार-प्रकार सुंदर हो सकता है लेकिन दूसरे काल में सुंदर नहीं हो सकता है। ये बाहर से थोपी गई कसौटियां हैं। लेकिन अंतर्तम अनुभूति सदा सौंदर्य की है।
इसलिए अगर बाहर की कसौटी न हो कसौटी ही न हो, तो कुरूपता भी नहीं
होगी–बाहर से देखने पर भी नहीं। हमारे पास सौंदर्य की एक निश्चित प्रतिमा है और प्रत्येक व्यक्ति की इससे तुलना की जाती है। यही कारण है कि कुरूपता है और सौंदर्य है अन्यथा वे नहीं होते। अगर हम सभी अंधे हो जाएं तो कोई भी कुरूप नहीं होगा हर व्यक्ति सुंदर होगा। कोई नहीं कह सकता कि इससे नुकसान होगा, यह एक बड़ा लाभ भी सिद्ध हो सकता है।
शरीर की भीतर से अनुभूति पहला कदम है। और तुम इसके प्रति किसी भी परिस्थिति में सजग हो सकते हो। और विभिन्न परिस्थितियों में तुम भीतर से सदा एक सा अनुभव नहीं करोगे। जब तुम प्रेम में होते हो तो भीतर की अनुभूति भिन्न होती है जब तुम घृणा में होते हो तो भीतर की अनुभूति भिन्न होती है। इसलिए अगर तुम किसी बुद्ध से पूछो तो वे कहेंगे ‘प्रेम सौंदर्य है।’ ऐसा नहीं है…सोच-विचार के हमारे ढंगों में ऐसा नहीं है लेकिन यह उनकी आंतरिक अनुभूति है। उन्हें पता है कि जब वे प्रेममय होते हैं तो वे सौंदर्यमय भी होते हैं
शरीर की भीतरी अनुभूति सौंदर्य की होती है। जब भीतर घृणा हो जब भीतर क्रोध हो जब भीतर ईर्ष्या हो तब भीतर सब कुरूप हो जाता है। तुम विभिन्न परिस्थितियों में भिन्न-भिन्न क्षणों में मन की विभिन्न अवस्थाओं में इसको अनुभव कर सकते हो।
जब तुम आलस्य अनुभव करते हो तो अलग अनुभव होता है। जब तुम सक्रियता अनुभव करते हो तो अलग अनुभव होता है। जब तुम नींद अनुभव करते हो तो अलग अनुभव होता है। इन भेदों को स्पष्टता से जानना होगा। केवल तब तुम अपने शरीर के भीतर के जीवन से–बीमारी में जवानी में बुढ़ापे में बचपन में–परिचित होते हो। तब तुम अपने शरीर का भीतरी इतिहास भीतरी भूगोल जानते हो। और जिस पल कोई भीतर से अपने शरीर के प्रति बोधपूर्ण हो जाता है दूसरा शरीर स्वत: उसकी दृष्टि में आ जाता है।
-osho
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