कृपया समझाइए यह कैसे संभव है कि केवल देखने द्वारा साक्षी द्वारा विचार—प्रक्रिया के स्रोत समाप्त हो सकते हैं
वे समाप्त कभी नहीं होते लेकिन साक्षी होने से तादात्म्य टूट जाता है। संबोधि पाने के बाद बुद्ध चालीस वर्ष तक अपने शरीर में रहे। शरीर समाप्त नहीं हुआ। चालीस वर्ष तक वे बोलते रहे थे, लगातार समझाते रहे, लोगों को समझाते रहे कि उन्हें क्या घटित हुआ था और वही उन्हे कैसे घटित हो सकेगा। वे इसी मन का उपयोग कर रहे थे, यह मन समाप्त नहीं हो गया था। और जब बारह वर्ष बाद वे अपने शहर में वापस आये, तो उन्होंने अपने पिता को पहचान लिया, पली को पहचाना, बेटे को पहचाना। मन था वहां, स्मृति थी उसमें, वरना पहचान असंभव हो गयी होती।
मन वास्तव में समाप्त नहीं हो जाता। जब हम कहते हैं कि मन समाप्त हो जाता है, हमारा मतलब होता है कि इसके साथ बना तुम्हारा तादात्म्य टूट जाता है। अब तुम जानते हो कि वह मन है यह ‘मैं’ हूं। पुल टूट चुका है। अब मन मालिक नहीं है। यह तो बस एक उपकरण हो गया है, यह अपने सही स्थान पर जा पड़ा है। जब कभी तुम्हें इसकी जरूरत हो, तुम इसका उपयोग कर सकते हो। यह तो पंखे की तरह है। यदि तुम इसका उपयोग करना चाहते हो, तुम इसे चला देते हो, और तब पंखा चलने लगता है। अभी तुम पंखे का उपयोग नहीं कर रहे हो इसलिए यह गैर—क्रियात्मक है। लेकिन यह वहां है, इसका होना समाप्त नहीं हुआ है। किसी क्षण तुम इसका उपयोग कर सकते हो। यह विलीन नहीं हुआ है।
साक्षीभाव द्वारा केवल तादात्म्य विलीन हो जाता है, मन नहीं। लेकिन जब तादात्म्य विलीन हो जाता है, तुम बिलकुल ही नयी सत्ता हो। पहली बार तुम जान लेते हो अपनी वास्तविक सत्ता को, अपनी सही वास्तविकता को। पहली बार तुम जान पाते हो कि तुम कौन हो। अब मन तुम्हारे आस—पास घिरी एक यंत्र—रचना का हिस्सा भर होता है।
यह तो ऐसा है जैसे तुम पाइलट बन हवाई जहाज चलाते हो। तुम बहुत से यंत्रों का इस्तेमाल करते हो, तुम्हारी आंखें कई यंत्रों के साथ कार्य करती हैं। वे लगातार इस और उस चीज का होश रखती हैं। लेकिन तुम नहीं हो यंत्र।
यह मन, यह शरीर और शरीर—मन के कई कार्य, चारों ओर हैं तुम्हारे। यही संरचना है। इस संरचना में तुम दो ढंग से हो सकते हो। होने का एक तरीका है कि स्वयं को भूल जाओ और अनुभव करो कि तुम मैकेनिज्य हो। यह है बंधन, यह है दुख, यही है जगत, संसार।
क्रियाशील होने का दूसरा तरीका यह है—सचेत हो जाओ कि तुम पृथक हो, कि तुम भिन्न हो। तब तुम यंत्र—रचना का उपयोग किये चले जा सकते हो, तो भी यह पृथक ही है। तब तुम वह नहीं हो। और यदि यांत्रिक—बनावट में कुछ गलत हो जाता है, तुम इसे ठीक करने की कोशिश कर सकते हो, लेकिन घबराओगे नहीं। यदि पूरी यंत्र—रचना विलीन भी हो जाये, तो तुम्हारी शांति पा न होगी।
बुद्ध का मरना और तुम्हारा मरना दो अलग घटनाएं हैं। जब बुद्ध मरते हैं, तो वे जानते हैं कि केवल यंत्र—रचना मर रही है। इसका उपयोग हो चुका है और अब इसकी और जरूरत नहीं रही। बोझ हट गया है; वे मुक्त हो रहे हैं। अब वे बिना स्वपाकार के घूमेंगे—फिरेंगे। लेकिन जब तुम मरते हो तो वह बिलकुल अलग होता है। तुम. दुखी होते हो, तुम चीखते हो, क्योंकि तुम अनुभव करते हो कि ‘तुम’ मर रहे हो, यंत्र—रचना नहीं। वह ‘तुम्हारी’ मृत्यु है। तब .वह गहन पीड़ा बन जाती है।
केवल साक्षीभाव द्वारा मन समाप्त नहीं होता है और मस्तिष्क की कोशिकाएं समाप्त न होंगी। बल्कि वे अधिक जीवंत हो जायेंगी क्योंकि उन में द्वंद्व कम होगा और ऊर्जा ज्यादा होगी। वे ज्यादा ताजी हो जायेंगी। तुम ज्यादा सही ढंग से उनका उपयोग कर पाओगे, ज्यादा ठीक—ठीक। लेकिन तुम उनके द्वारा बोझिल नहीं होओगे। और वे कुछ करने के लिएतुम्हें विवश नहीं करेंगी। वे तुम्हें इधर—उधर धकेलेंगी और खींचेंगी नहीं। तुम मालिक हो जाओगे।
लेकिन केवल साक्षीभाव द्वारा यह कैसे घटित होता है? वह विपरीत, वह बंधन घटित हुआ है साक्षी न होने से। बंधन घटित हुआ है, क्योंकि तुम जागरूक नहीं हो। तो बंधन छूट जाये, यदि तुम जागरूक हो जाओ। बंधन केवल अचेतनता है। किसी और चीज की जरूरत नहीं है सिवाय इसके कि जो कुछ तुम करो उसमें और भी सजग हो जाओ।
तुम यहां बैठे हुए मुझे सुन रहे हो; तुम जागरूकता से सुन सकते हो या तुम बिना जागरूकता के सुन सकते हो। बिना जागरूकता के भी सुनना हो जायेगा, लेकिन वह एक दूसरी चीज होगी। गुण में अंतर होगा। तब तुम्हारे कान सुन रहे होंगे, लेकिन तुम्हारा मन कहीं और ही कार्य कर रहा होगा।
तब किसी तरह कुछ शब्द तुममें भर जायेंगे। वे मिल—जुल कर उलझ जायेंगे। और तुम्हारा मन अपने ढंग से उनकी व्याख्या कर लेगा। वह अपने विचार उनमें रख देगा। हर चीज गड़बड़ और धुंधली हो जायेगी। तुमने सुन लिया होगा, लेकिन बहुत बातें बाहर से ही गुजर जायेगी और बहुत—सी बातों को तुम सुन न पाये होगे। तुम चुनोगे। तब सारी बात ही विकृत हो जायेगी।
यदि तुम सजग होते हो, जिस घड़ी तुम सजग होते हो, सोचना समाप्त हो जाता है। सजगता के साथ तुम सोच नहीं सकते। यदि पूरी ऊर्जा सचेत हो जाती है, तब विचार के लिए ऊर्जा बची ही नहीं। यदि तुम एक क्षण के लिए भी सजग हो जाते हो, तो तुम केवल सुनते हो। कोई बाधा नहीं रहती। जो मैंने कहा है, उसके साथ मिश्रित होने के लिए तुम्हारे अपने शब्द नहीं रहे। तुम्हें अर्थ लगाने की जरूरत न रही। प्रभाव सीधा है।
यदि तुम सजगता से सुन सकते हो, तब मैं जो कह रहा हूं वह अर्थपूर्ण हो सकता है, या अर्थपूर्ण नहीं भी हो सकता है, लेकिन तुम्हारा सजगता के साथ सुनना महत्वपूर्ण अर्थ रखेगा। यह सजगता ही तुम्हारी चेतना को एक शिखर तक ले जायेगी। अतीत विलीन हो जायेगा, भविष्य मिट जायेगा। तुम कहीं और न होओगे। तुम होओगे केवल अभी और यहीं। और मौन के उसी क्षण में जब सोचना नहीं रहा, तुम अपने स्रोत के साथ गहरा संपर्क पा जाओगे। और वह स्रोत है आनंद। वह स्रोत दिव्य है। इसलिए करना है तो केवल यही कि हर बात सजगता के साथ करनी है।
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